Thursday 22 December 2011

वो चोट देता है मुझे पत्थर समझकर
सह लेता हूँ मै भी सबकुछ मुस्कुराकर
उसकी नज़रों में मेरी कोई कीमत नहीं है,
काँच समझे या कि हीरा, है ये जौहरी पर...
खुद अँधेरे में भी रहकर रौशनी देता "चिराग"
फिर कभी समझेगा वो, अभी खुश है बुझाकर....

-विशाल...

Tuesday 20 December 2011

 गर दूर तक साथ निभा सको तो चलो...
चोट खा के भी मुस्कुरा सको तो चलो...
मुसव्वर नहीं तुम मुझे भी मालूम है,
दिल में मेरी तस्वीर बना सको तो चलो...
चाँद ना बन सको तो जुगनू ही सही,
ज़िन्दगी में थोड़ी ताबानी ला सको तो चलो...
अँधेरी राहों का मुसाफिर हूँ मै भटकता हुआ,
"चिराग" हर मोड़ पर जला सको तो चलो...
गर दूर तक साथ निभा सको तो चलो...
चोट खा के भी मुस्कुरा सको तो चलो...

- विशाल....

 
 
सब में आदमी को पहचानने का सलीका नहीं होता,
माथे के चन्दन को उसने पाँव में रखा...
उसका मेरा नाता रहा कुछ इस तरह,
दूर रह कर भी उसने अपनी निगाहों में रखा...
उसकी ज़िन्दगी में कोई जगह ना थी मेरी,
मैंने उसे हर वक़्त अपनी दुआओं में रखा...
मुश्किलों से लड़ना अपना शगल रहा है दोस्त,
"चिराग" को मैंने हमेशा हवाओं में रखा.....

- विशाल....
कोसने से अँधेरा कम नहीं होगा,
रौशनी के लिए कोई "चिराग" बाल कर तो देख...
तेरे दिल की चुभन भी दूर हो सकती है,
किसी के पाँव से काँटा निकाल कर तो देख...

- विशाल...
परिंदे भी नहीं रहते पराये आशियानों में,
हमने ज़िन्दगी गुज़ारी है किराये के मकानों में...

- विशाल
शमां बुझ गयी तो महफ़िल में रंग आया,
जब मौत करीब आई तो जीने का ढंग आया....

- विशाल...
तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक ना रहे,
मै चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक़ ना रहे...

-विशाल...
अजीब लोग हैं क्या मुंसिफी की है
हमारे क़त्ल को कहते हैं कि खुदखुशी की है,
हम तो टूट गए अन्दर आईने की तरह,
वो हँस कर कहते हैं बस दिल्लगी की है...

-विशाल...
तू जहाँ भी रहे हरदम मेरे आसपास रहे
दूर रह कर भी तेरी धड़कनों का अहसास रहे
लोग आएंगे जायेंगे ज़िन्दगी में मौसमों की तरह,
तू हमेशा मेरे लिए मधुमास रहे...

- विशाल...
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जो खुद उदास है वो क्या ख़ुशी लुटायेगा
मुझ बुझे चिराग से किस तरह दिए जलाएगा...
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-विशाल....
मृत्यु सत्य है अंतिम, उसको तो है आना,
फिर चिंता में राही, काहे का घबराना,
चिंता तू कर इसकी कि मृत्यु तेरी हो कैसी,
अगणित जाते हैं जैसे या आज़ाद, भगत  सिंह जैसी...
ना करना पड़े विचार तुझे ये अंतिम क्षण पर,
कि क्यों आया था यहाँ, जा रहा क्यों कर....!
मन में हो संतोष कि जीवन जी भर जिए,
जब दी गयी पुकार, छोड़ सब चल दिए...
स्मृति में रहे तू युगों तक इस धरती पर,
इस शरीर का क्या, चोला माटी का नश्वर...
बन प्रकाश स्तम्भ तू इस तिमिर घटा में,
हो आलोकित पथ सबका बढ़ते जाएँ,
मृत्यु तेरी बन जाए असंख्यों का जीवन,
उद्देश्यों के हेतु करें हम सर्वस्व समर्पण....

-विशाल....
मेरे सीनें में रहता था एक पत्थर बरसों से,
उसके आने से इसमें भी एहसास उभर आया है...

- विशाल...
तुम हो तो सब सिलसिले अच्छे लगते हैं,
मुझे तुम्हारी चाहत के गिले अच्छे लगते हैं,
बहुत दूर तक जाना.......मगर लौट आना,
मुझे तुमसे तुम्हीं तक फासले अच्छे लगते हैं...

-विशाल...
मैंने वफाओं की उम्मीद रखना छोड़ दिया है,
जबसे खुद पानी ने सुराही को फोड़ दिया है,
मै अब तक भटक रहा हूँ बीहड़ों में कहीं,
उसने मेरे रास्तों को, कुछ यूँ मोड़ दिया है....

-विशाल...
क्यों छोड़ जाते हो साथ मेरा,
रास्ता कभी रहनुमा नहीं होता...
कभी अपना दिल भी टटोलकर देखो,
फासला यूँ बेवजह नहीं होता....

विशाल....
उस से मिलकर भी जाने क्यों  मै उदास रहा,
प्यासा रहा जबकि नदी के आस-पास रहा....

- विशाल...
हर बार, हर मोड़ पर मै लूटा गया हूँ,
मुझको मेरी शराफत का ये ईनाम मिला है,
खुद उसने मुझे अपने हाथों क़त्ल किया है,
उससे मोहब्बत का मुझे, ये अंजाम मिला है...

-विशाल...
जिसने मेरे पाँव को लहुलुहान किया है,
मेरे ही जूते की कील थी, कोई काँटा नहीं,
गैरों से कैसा शिकवा, गम में साथ न आने का,
जो अपने थे उन तक ने तो कभी बाँटा नहीं...

- विशाल...
कई बार मुझे खुद को बदलना पड़ा है
ना चाहते हुए भी सबके लिए चलना पड़ा है
लोग ज़ख्म-दर-ज़ख्म देते रहे सदा,
मुझे अपने ही ज़ख्मों पे नमक मलना पड़ा है...

-विशाल...